Ad

kaddu ki kheti

जून में उगाई जाने वाली फसलों की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी

जून में उगाई जाने वाली फसलों की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी

खेती किसानी में बहुत से आतंरिक और बाहरी कारक फसलीय उत्पादन को प्रभावित करते हैं। इनमें से एक प्रमुख कारक फसल बुवाई के समय का चयन करना है। 

किसान भाइयों को बेहतर उपज हांसिल करने के लिए हर एक माह के मुताबिक फसलों की बुवाई और कृषि कार्य करना चाहिए। साथ ही, फसल की बुवाई के लिए उन्नत किस्मों का चुनाव करना चाहिए, 

ताकि बंपर उत्पादन हांसिल किया जा सके। ऐसे में कृषकों के पास प्रति महीने कृषि कार्यों की जानकारी होनी चाहिए, ताकि ज्यादा उपज के साथ उच्च गुणवत्ता प्राप्त हो सके।

भारत में मौसम के आधार पर भिन्न-भिन्न फसलों की खेती की जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक महीने मौसम को मद्देनजर रखते हुए अलग-अलग कृषि कार्य भी किया जाता है, ताकि फसलों की सही ढ़ंग से देखभाल की जा सके। 

इससे फसल की अच्छी-खासी वृद्धि होती है। साथ ही, उपज की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। ऐसे में आवश्यक है, कि कृषकों को मौसम के आधार पर किए जाने वाले कृषि कार्यों की सटीक जानकारी होनी चाहिए।

धान की नर्सरी से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी 

यदि किसान भाई मई के अंतिम सप्ताह में धान की नर्सरी नहीं लगा पाए हैं, तो जून के प्रथम सप्ताह तक यह कार्य पूर्ण कर लें। वहीं, सुगंधित किस्मों की नर्सरी जून के तीसरे सप्ताह तक लगा लें। 

धान की मध्यम और देरी से पकने वाली किस्मों को काफी अच्छा माना गया है। इसमें स्वर्ण, पंत-10, सरजू-52, नरेन्द्र-359, जबकि टा.-3, पूसा बासमती-1, हरियाणा बासमती सुगंधित एवं पंत संकर धान-1 तथा नरेन्द्र संकर धान-2 प्रमुख उन्नत संकर किस्में हैं। 

धान की बारीक किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर बीज दर 30 किलोग्राम, मध्यम धान के लिए 35 किलोग्राम, मोटे धान के लिए 40 किलोग्राम और बंजर भूमि के लिए 60 किलोग्राम, जबकि संकर किस्मों के लिए 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है। 

ये भी पढ़ें: किसान पूसा से धान की इन किस्मों का बीज अब ऑनलाइन खरीद सकते हैं

अगर नर्सरी में खैरा रोग नजर आए तो 20 ग्राम यूरिया, 5 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 वर्ग मीटर क्षेत्र में छिड़काव करना चाहिए।

मक्का की जून में बुवाई से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी   

जून में मक्का की खेती से किसान अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं। इसलिए अगर आप मक्का की बुवाई करना चाहते हैं, तो इसकी बुवाई 25 जून तक कर लेनी चाहिए। अगर सिंचाई की सुविधा हो तो इसकी बुवाई 15 जून तक भी की जा सकती है। 

मक्का की उन्नत किस्मों में शक्तिमान-1, एच.क्यू.पी.एम.-1, तरुण, नवीन, कंचन, श्वेता और जौनपुरी की सफेद और मेरठ की पीली स्थानीय किस्में अच्छी मानी जाती हैं।

किसान पशु चारा की फसलों की बुवाई करें  

पशुओं के लिए हरे चारे का अभाव ना हो इसलिए आप इस महीने में ज्वार, लोबिया और चरी जैसे चारे वाली फसलों की बुवाई कर सकते हैं। बारिश न होने की स्थिति में खाद देकर बुवाई की जा सकती है। 

जून के महीने में किसान इन सब्जियों की खेती करें

जून के महीने में आप बैंगन, मिर्च, अगेती फूलगोभी की रोपाई कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त लौकी, खीरा, चिकनी तोरी, सावन तोरी, करेला और टिंडा की बुवाई भी इसी माह की जा सकती है। 

भिंडी की उन्नत किस्मों में परभणी क्रांति, आजाद भिंडी, अर्का अनामिका, वर्षा, उपहार, वी.आर.ओ.-5, वी.आर.ओ.-6 और आईआईवीआर-10 अच्छी मानी जाती है।

कद्दू की खेती ( Pumpkin Farming) के उन्नत तरीके

कद्दू की खेती ( Pumpkin Farming) के उन्नत तरीके

कद्दू की खेती लगभग पूरे भारत में होती है।कद्दू एक ऐसी सब्जी है जिसे क्षेत्र और राज्य के अनुसार इसके नाम होते हैं। अगर हम उत्तर प्रदेश की बात करते हैं तो कद्दू को काशीफल, सीताफल, कोला या कोयला कई जगह इसे पैठे की सब्जी भी बोला जाता है | इसे English में Pumpkin बोला जाता है | कद्दू की सब्जी को लोग बड़े चाव से खाते हैं तथा इसकी सब्जी को जब भी कोई धार्मिक भंडारा होता है तो इसकी सब्जी जरूर बनाई जाती है. दक्षिण भारत में इसको सांभर में प्रयोग किया जाता है. आज जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है तो लोगों की आवश्यकता भी उसी अनुरूप बढ़ रही है। सब्जी की खेती किसान को भी अच्छी आमदनी दिलाती है, इससे किसान को रोजाना की आमदनी होती है।कहना गलत नहीं होगा कि अगर किसान को अपनी आय बढ़ानी है तो उसे सब्जी की खेती करनी होगी।

कम लागत, अच्छी आमदनी :

सरकार किसानों कि आय दोगुनी करने पर कार्य कर रही है, इसके लिए वो किसानों को नए-नए तरीके से फसल करना, खेती सम्बंधित व्यवसाय करना आदि कि ट्रेनिंग दे रही है | कद्दू कि खेती भी किसानों के लिए एक वरदान का काम कर सकती है | इसकी उपज में लागत कम आती है तथा इसका उत्पादन अच्छा होता है | इसके फल का वजन भी ज्यादा होता है | पके कददू गहरे पीले रंग के होते हैं तथा इसमें कैरोटीन की मात्रा भी बहुतायत में पाई जाती है। इसके बीज का सेवन पुरुषों के लिए बहुत लाभप्रद बताये जाते हैं. Pumpkin Farming

खेत की तैयारी:

सामान्यतः अन्य फसलों की तरह इसकी खेती के लिए भी खेत में पोषक तत्वों की मात्रा भरपूर होनी चाहिए. इसका सबसे सटीक उपाय है की आप खेत में पहली जुताई से पहले गोबर की बनी ( सड़ी) हुई खाद डाल कर उसपर 2 से 3 बार कल्टीवेटर से जुताई लगा दें और ऊपर से पाटा लगा दें जिससे की खेत समतल हो जाये. अगर हो सके तो अपने खेत को कम से कम 3 साल में एक बार हरी खाद जरूर दें.  इससे जमीन को ताकत मिलती है तथा आपकी फसल भी कम से कम रासायनि खादों पर निर्भर रहती है. ये भी पढ़ें : रासायनिक से जैविक खेती की तरफ वापसी

भूमि का चुनाव:

इसकी फसल के लिए भूमि का चुनाव करते समय ध्यान रहे की उस खेत में पानी निकासी की व्यवस्था होनी चाहिए | यानि की इसकी जमीन में पानी नहीं रुकना चाहिए इससे इसके पौधे और फल दोनों ही गलने लग जाते हैं. इसके लिए रेतीली, भुरभुरी और दोमट मिटटी उपयुक्त रहती है.

जलवायु:

जलवायु की बात करें तो इसके लिए गर्म और बारिश वाला समय उपयुक्त रहता है. इसके बीज को उगाने के लिए दोनों मौसम सहायक होते हैं लेकिन सर्दी के मौसम में इसके बीज को उगाना मुश्किल है | लेकिन आज तो लोग कृत्रिम मौसम देकर इसके बीज को समय से पहले ही उगा लेते हैं | कददू की खेती के लिए सर्दी और कम सर्दी वाली जलवायु भी उपयुक्त होती है इसके लिए 18 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट का सामान्य मौसम होना चाहिए.

कद्दू कितने तरह के होते हैं:

kaddu ki kheti कद्दू की प्रजाति या प्रकार की हम बात करें तो, हमारे कृषि वैज्ञानिक इसकी नई नई किस्में विकसित कर रहें हैं. जो कि निम्न प्रकार हैं:

1- पूसा विशवास:

कद्दू की इस किस्म को उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों में उगाया जाता है क्योकि इस किस्म को थोड़ा ठंडा और गर्म दोनों मौसम के अनुसार पूसा संस्थान ने विकसित किया है. इसके एक फल का वजन 5 से 7  किलो के आसपास जाता है. जबकि इसका कुल उत्पादन 400 से 450 किवंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास होता है. इसके फलों का रंग दूसरी किस्मों की अपेक्षा ज्यादा हरा दिखाई देता है. जिन पर सफ़ेद रंग के धब्बे बने होते हैं. इस किस्म के पौधों पर फल बीज रोपाई के 110 से 120 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं.

2- पूसा विकास:

कद्दू की इस किस्म के पौधे बारिश के मौसम में उगाये जाते हैं. इस किस्म के बेल की लम्बाई दो से तीन मीटर के बीच पाई जाती है. इसके फल कच्चे रूप में सब्जी में ज्यादा उपयोग में लिए जाते हैं. इसका फल छोटे आकार का होता है तथा इसके अंदर गूदा भी अच्छा होता है. जिनका वजन दो से तीन किलो के आसपास पाया जाता है. एक हेक्टेयर के इसका उत्पादन 300 - 350 किवंटल के आस पास जाता है.

3 - कल्यानपुर पम्पकिन-1,

4 - नरेन्द्र अमृत,

5 - अर्का सुर्यामुखी,

6 - अर्का चन्दन,

7 - अम्बली,

8 - सी एस 14,

9 - सी ओ1 एवम 2,

इनके साथ-साथ कुछ विदेशी प्रजातियां भी अपने यहाँ उगाई जाती है जो निम्न प्रकार हैं:

विदेशी किस्में:

भारत में पैटीपान , बतर न्ट, ग्रीन हब्बर्ड , गोल्डन हब्बर्ड , गोल्डन कस्टर्ड, और यलो स्टेट नेक नामक किस्में भी बहुत छोटे स्तर पर उगाई जाती है |

बोने का तरीका:

Kaddu ki Buwai इसके बीज को मेंड़ बना कर लगाना उचित रहता है. इसकी मेंड़ से मेंड़ कि दूरी कम से कम 4 फ़ीट की होनी चाहिए. जिससे की इसकी बेल को फैलने के लिए पूरी जगह मिल सके. उचित होगा अगर आप इसकी बेल को ऊपर चढ़ा दें जिससे की मिटटी की वजह से इसके फल को नुकसान नहीं होता है. किसान के घर में औरतें भी इसकी खेती करती हैं. जब बारिश शुरू हो जाती हैं तो वो इसके बीजों को बुर्जी और बिटोरों के पास लगा देती हैं धीरे धीरे ये बेल बुर्जी और बिटोरे पर चढ़ जाती हैं और ऊपर फल लगने लगते हैं जो कि पूरी तरह से ऑर्गनिक फल होते हैं. ये भी पढ़ें : तोरई की खेती में भरपूर पैसा

फसल कि देखरेख:

इसकी फसल कि देखरेख में सबसे ज्यादा जो ध्यान रखने वाली चीज है वो ये है कि अगर आपने इसकी फसल को गर्मी में लगाया है तो इसको हर 8 से 10 दिन में पानी कि आवश्यकता होती है तथा बारिश के मौसम की फसल को खरपतवार से बचाना होता है. इसकी समय समय पर निराई गुड़ाई करते रहें. अगर इसकी फसल में खरपतवार हो गया तो इसको कीट रोग बहुत जल्दी लगेंगे. अगर संभव हो तो शाम के समय में गूगल, धूप डाल के खेत में जगह जगह धुँआ कर दें इससे कीट पतंगें इससे दूर रहेंगें.

कद्दू की फसल में लगने वाले रोग:

कीट एवं रोग नियंत्रण के जैविक तरीके:

  • लालड़ी

पौधों पर दो पत्तियां निकलने पर इस कीट का प्रकोप शुरू हो जाता है यह कीट पत्तियों और फूलों को खाता है इस कीट की सुंडी भूमि के अन्दर पौधों की जड़ों को काटती है जिससे हमारी फसल का पौधा सूख जाता है जिसका नुक्सान हमे उठाना पड़ता है जिससे हमारी पैदावार पर काफी प्रभाव पड़ता है |

रोकथाम

इम से कम 40-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |
  • फल की मक्खी

यह मक्खी फलों में प्रवेश कर जाती है और वहीँ पर अंडे देती है अण्डों से सुंडी बाहर निकलती है वह फल को बेकार कर देती है यह मक्खी विशेष रूप से खरीफ वाली फसल को अधिक हानी पहुंचाती है जिससे हमारी फसल ख़राब हो जाती है | इसकी मक्खी फल के रस को चूस लेती है. इसको रस चूसक भी बोला जाता है.

रोकथाम

इम से कम 40-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |
  • सफ़ेद ग्रब

यह कीट कद्दू वर्गीय पौधों को काफी क्षति पहुंचाती है यह भूमि के अन्दर रहती है और पौधों की जड़ों को खा जाती है जिसके कारण पौधे सुख जाते है |

रोकथाम

इसकी रोकथाम के लिए खेत में नीम का खाद प्रयोग करें |
  • चूर्णी फफूदी

यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नमक फफूंदी के कारण होता है पत्तियों एवं तनों पर सफ़ेद दरदरा और गोलाकार जल सा दिखाई देता है जो बाद में आकार में बढ़ जाता है और कत्थई रंग का हो जाता है पूरी पत्तियां पिली पड़कर सुख जाती है पौधों की बढ़वार रुक जाती है |

रोकथाम

इसकी रोकथाम के लिए देसी गाय का मूत्र 5 लीटर लेकर 15 ग्राम के आकार के बराबर हींग लेकर पिस कर अच्छी तरह मिलाकर घोल बनाना चाहिए प्रति 2 ली. पम्प के द्वारा तर-बतर कर छिडकाव करे ।
  • मृदु रोमिल फफूंदी

यह स्यूडोपरोनोस्पोरा क्यूबेन्सिस नामक फफूंदी के कारण होता है रोगी पत्तियों की निचली सतह पर कोणाकार धब्बे बन जाते है जो ऊपर से पीले या लाल भूरे रंग के होते है |

रोकथाम

इम से कम 40-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |
  • मोजैक

यह विषाणु के द्वारा होता है पत्तियों की बढ़वार रुक जाती है और वे मुड़ जाती है फल छोटे बनते है और उपज कम मिलती है यह रोग चैंपा द्वारा फैलता है |

रोकथाम

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र तम्बाकू मिलाकर पम्प के द्वारा तर-बतर कर छिडकाव करे ।
  • एन्थ्रेक्नोज

यह रोग कोलेटोट्राईकम स्पीसीज के कारण होता है इस रोग के कारण पत्तियों और फलो पर लाल काले धब्बे बन जाते है ये धब्बे बाद में आपस में मिल जाते है यह रोग बीज द्वारा फैलता है |

रोकथाम

बीज के बोने से पूर्व गौमूत्र या कैरोसिन या नीम का तेल के साथ उपचारित करना चाहिए |
कद्दू उत्पादन की नई विधि हो रही है किसानों के बीच लोकप्रिय, कम समय में तैयार होती है फसल

कद्दू उत्पादन की नई विधि हो रही है किसानों के बीच लोकप्रिय, कम समय में तैयार होती है फसल

सीताफल और काशीफल जैसे लोकप्रिय नाम से प्रचलित कद्दू या कुम्हड़ा (Kaddu, kumharaa or pumpkin) एक ऐसी सब्जी है, जिसे उत्पादन के बाद कोल्ड स्टोरेज में रखने की इतनी आवश्यकता नहीं होती है और लंबे समय तक आसानी से बेचा जा सकता है। सभी पोषक तत्वों की पूर्ति करने वाली यह फसल कई प्रकार की मिठाइयां बनाने के काम में तो आती ही है, साथ ही इसे खाने से उसके बीज में मौजूद विटामिन-सी, आयरन, फास्फोरस, पोटेशियम तथा जिंक जैसे सूक्ष्म तत्वों की कमी को भी दूर किया जा सकता है।

कद्दू की खेती के उपयुक्त जलवायु

वैसे तो कद्दू की खेती के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है, परंतु फिर भी एक जायद फसल होने के नाते ठंडी और गर्म मिश्रण की जगह पर भी इसे उगाया जा सकता है। किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि कद्दू की फसल को ज्यादा ठंड पड़ने पर पाले से बचाना होगा। कद्दू की अच्छी पैदावार के लिए आपको 18 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच में तापमान को नियंत्रित करना होगा।


ये भी पढ़ें:
सीजनल सब्जियों के उत्पादन से करें कमाई

कद्दू की खेती के लिए कैसी मिट्टी चाहिये ?

कद्दू की खेती के लिए मुख्यतया भारत के किसान दोमट या बलुई दोमट मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं, हालांकि इसकी खेती बलुई मिट्टी में भी की जाती है। कद्दू की खेती के लिए किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि आपके खेत में पानी निकासी की व्यवस्था अच्छी तरीके से होनी चाहिए।

कद्दू की खेती के लिए खेत की तैयारी व खाद उपचार

किसान भाई यह तो जानते ही होंगे कि कद्दू एक उथली जड़ वाली फसल होती है, इसलिए इसे ज्यादा जुताई की आवश्यकता नहीं होती है। आप एक बार ही कल्टीवेटर से जुताई कर अपने खेत को समतल बनाकर इसके बीजों की बुवाई कर सकते है। खेत के तैयार होने के बाद छोटी-छोटी क्यारियां और नालियां बना कर मेड़ बनानी चाहिए। कद्दू की फसल के दौरान इस्तेमाल में होने वाले ऑर्गेनिक गोबर की खाद को डाला जा सकता है। इसके अलावा आप अरंडी की फसल से तैयार होने वाले चारे को पीसकर भी अंतिम जुताई से पहले खेत में अच्छी तरह बिखेर सकते है।


ये भी पढ़ें:
जैविक खेती में किसानों का ज्यादा रुझान : गोबर की भी होगी बुकिंग
यदि बात करें रासायनिक खाद और उर्वरकों की, तो प्रति हेक्टेयर जमीन के अनुसार 70 से 80 किलोग्राम नाइट्रोजन तथा 40 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल किया जा सकता है। इन उर्वरकों का इस्तेमाल आपको अंतिम जुताई से पहले ही अपने खेत में करना होगा और नाइट्रोजन की कुछ मात्रा कद्दू के फूल के 20 से 25 दिन बड़े होने के बाद इस्तेमाल करनी चाहिए। किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि सुबह के समय कद्दू की फसल में कभी भी रसायनिक या जैविक खाद का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

कद्दू की बुवाई में बीज अनुपात व उपचार

कद्दू की फसल को बोने का समय इस बात पर निर्भर करता है कि इसे कहां पर बोया जा रहा है। भारत के मैदानी क्षेत्रों में इसे साल में दो बार उगाया जाता है और पर्वतीय क्षेत्रों में अप्रैल महीने में इसकी बुवाई की जाती है। किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि फसल की दो कतारों के बीच में लगभग 200 से 250 सेंटीमीटर की दूरी होनी अनिवार्य है और दो छोटी पौध के बीच में 45 से 50 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए। बीज को जमीन से 5 से 6 सेंटीमीटर गहराई में बोया जाए तो इसकी कोंपल सही समय पर बाहर निकल आती है। कद्दू की बुवाई के लिए प्रति हेक्टेयर की दर से 1 किलोग्राम से 2 किलोग्राम बीज पर्याप्त होते है। बीज बोने से पहले आप अपने बीज का उपचार भी कर सकते है, जिसके तहत बीज को 1 लीटर पानी में मिलाकर उसमें 2 ग्राम केप्टोन का मिश्रण तैयार किया जा सकता है और फिर इसे अच्छी तरह घोला जाता है, कुछ समय बाद बाहर निकाल कर दो से तीन घंटे छाया में सुखाकर बुवाई के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।


ये भी पढ़ें:
पूसा कृषि वैज्ञानिकों की एडवाइजरी इस हफ्ते जारी : इन फसलों के लिए आवश्यक जानकारी

कद्दू की उन्नत किस्में

पूसा के वैज्ञानिकों के द्वारा कद्दू की फसल की कई उन्नत किस्में भारतीय किसानों के लिए तैयार की गई है, इनमें पूसा-अलंकार, पूसा-विश्वास तथा पूसा-विकास खेतों में इस्तेमाल की जाने वाली उन्नत किस्म है।

कद्दू की फसल में कीट नियंत्रण

किसान भाइयों कद्दू की फसल में लगने वाले रोग जैसे कि लीफ-माइनर और फल-मक्खी से बचाव के लिए घर पर ही कुछ रासायनिक मिश्रण तैयार कर सकते है।इसके लिए आप वर्मी-मैक्स यात्रा की 0.005 प्रतिशत मात्रा को अपने खेत में तीन से चार सप्ताह के अंतराल पर छिड़काव कर सकते है। फल मक्खी कद्दू की फसल में लगने वाले फल की मुलायम अवस्था में ही उसके अंदर अंडे दे देती है और उसे अंदर से खाना शुरु कर देती है, इसके निवारण के लिए फूल के बड़े होने के बाद रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल कम करना चाहिए और नीम की निंबोली का पानी के साथ 5% गोल मिलाकर इस्तेमाल करना चाहिए।

कद्दू के फसल की तुड़ाई

कद्दू की फसल की बुवाई के लगभग 70 से 80 दिनों में यह तैयार हो जाता है और आपके आसपास की मंडी की मांग के अनुसार इसे समय-समय कर तोड़ते रहना चाहिए। भारत के लोगों के द्वारा दोनों समय की सब्जी के रूप में इसका इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए इसकी डिमांड पूरे साल चलती रहती है। यदि आप उपयुक्त बतायी गयी विधि का इस्तेमाल पूरी सावधानी से करते हैं तो एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 300 से 400 क्विंटल कद्दू की पैदावार कर सकते है। इसके भंडारण के लिए किसी विशेष शीत-ग्रह की जरूरत नहीं होगी और अपने घर में ही एक कमरे में 20 से 25 दिन तक स्टोर किया जा सकता है, पर ध्यान रहे कि तापमान लगभग 30 डिग्री सेल्सियस से कम ही होना चाहिए। आशा करते हैं कि हमारे किसान भाइयों को वैज्ञानिकों के द्वारा तैयार की गई कद्दू उत्पादन की यह नई विधि पसंद आई होगी और भविष्य में इसी विधि का इस्तेमाल करके अच्छा उत्पादन कर पाएंगे।